जेरोम ब्रूनर एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे और उन्होंने संज्ञानात्मक विकास पर एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया। ब्रूनर ने अपने संज्ञानात्मक सिद्धांत के प्रतिपादन से पहले पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत पर कार्य किया और इसके बाद उसने स्वतंत्र रूप से अपने संज्ञानात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
ब्रूनर का सिद्धांत को संरचनात्मक अधिगम सिद्धांत या अन्वेषण सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है।
Bruner Congnitive Development Theory |
ब्रूनर के अनुसार मनुष्य उन बातों को अधिक से अधिक सीखने का प्रयास करता है जो वास्तविक है या वास्तविकता से काफी नजदीक होती है। वास्तविकता को पहचानने के लिए मनुष्य को तीन स्थितियों से गुजरना पड़ता है –
ब्रूनर के इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी व्यक्ति को ज्ञान की संरचना (Knowledge of Structure) से अवगत कराना चाहिए क्योंकि वह व्यक्ति एक बार संरचना को सीख जाता है तो भविष्य में किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं करता है। यदि बालक को कंप्यूटर का ज्ञान करवाना है तो बालक को कंप्यूटर के समस्त उपकरणों के निर्माण प्रक्रिया को बताते हुए अधिगम करवाना चाहिए।
संरचनात्मक शब्द का तात्पर्य अधिगमकर्ता के द्वारा स्वयं के लिए ज्ञान की संरचना करना है।
ब्रूनर के अनुसार बालकों को इस प्रकार पढ़ाया जाए कि वे स्वयं ज्ञान की संरचना कर सके। जो भी विषय वस्तु पढ़ाई जाए उसकी मूल प्रकृति व संरचना से बालकों को अवगत कराया जाए क्योंकि ऐसा करने से –
ब्रूनर ने वर्गीकृत अधिगम (Classified Learning) के महत्व पर बल दिया है तथा कहा है कि जब बालक मूल संरचना को समझ जाता है तो किसी भी विषय का बोध बेहतर होता है। ब्रूनर के अनुसार समझना, विचार करना ही वर्गीकृत करना है। अधिगम के लिए ब्रूनर ने सबसे अच्छा उद्दीपन (Stimulation) ‘विषय के प्रति रुचि’ को बताया है।
ब्रूनर के सिद्धांत संबंधित वीडियो उत्कर्ष क्लासेज 👇 1. क्रियात्मक अवस्था (क्रिया आधारित)
बालक भौतिक वस्तुओं से क्रिया करता है और उसके प्रभावों से सीखता है। इस अवस्था में बालक क्रिया करके सीखने या संज्ञान लेने का प्रयास करता है। जैसे – हाथ पैर चलाना, साइकिल चलाना आदि।
इस अवस्था में मानसिक प्रतिक्रिया या भाषा का महत्व नगण्य है। किसी वस्तु को समझने हेतु वह उसे पकड़ता है, उससे खेलता है, उसे मरोड़ता है, काटता है, तोड़ता है, भूख लगने पर रोता है आदि। इन क्रियाओं के द्वारा बालक बाह्य वातावरण से संबंध स्थापित करता है।
यह शारीरिक अनुक्रियाओं की अवस्था है। इस अवस्था में छात्र वातावरण का ज्ञान अपनी शारीरिक क्रियाओं एवं गामक गतिविधियों के द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता है।
2. प्रतिबिंबात्मक अवस्था (चित्र आधारित)
इस अवस्था में मानसिक प्रतिबिंबों द्वारा सूचनाएं व्यक्ति तक पहुंचती है। इसमें बालक प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से सीखता है।
बालक जोर से ध्वनि तथा चमक की विविधता से प्रभावित होता है। बालक में दृश्य स्मृति विकसित हो जाती है। इस अवस्था में प्रारूपों और चित्रों की सहायता से अधिगम होता है। ब्रूनर कि यह अवस्था पियाजे के पूर्व संक्रियात्मक अवस्था से समानता रखती है।
3. संकेतात्मक अवस्था (भाषा आधारित)
इस अवस्था में बालक में अमूर्त रूप से सोचने की क्षमता का विकास होता है। बालक भाषा, गणित, तर्क आदि सीख कर उनका उपयोग करते हैं। संकेतों के प्रयोग से बालकों की संज्ञानात्मक कार्य क्षमता बढ़ जाती है।
ब्रूनर का कहना है कि बालक प्रारंभ में क्रियाओं के द्वारा चिंतन और फिर प्रतिबिंब द्वारा चिंतन और बाद में संकेतों या शब्दों द्वारा चिंतन करते हैं। इस अवस्था में बालक अपनी अनुभूतियों को ध्वन्यात्मक संकेतों (भाषा) के माध्यम से व्यक्त करता है। यह अमूर्त चिंतन की अवस्था होती है।
इन तीनों चरणों के आधार पर ब्रूनर ने मूर्त, चित्रण और सांकेतिक गतिविधियों के मिश्रण को प्रभावी अधिगम के लिए प्रस्तावित किया। ब्रूनर का मानना है कि बच्चों में अधिगम का प्रारंभ वस्तुओं के प्रत्यक्ष संपर्क के साथ होना चाहिए। इसके बाद दृश्य अधिगम और सबसे अंत में संकेतों या चिन्हों के साथ समझ का विकास होता है।
1. ब्रूनर के अनुसार अधिगमकर्ता के सामने ऐसी परिस्थितियों का निर्माण किया जाना चाहिए कि अधिगमकर्ता अपने आप पूर्ण रुप से क्रिया करने हेतु प्रेरित हो सकें।
2. ज्ञान प्राप्ति की उपलब्धि की अपेक्षा ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रयुक्त प्रक्रिया को समझने पर बल देना। बालकों में यह भावना भी जागृत की जानी चाहिए कि ज्ञान एक प्रक्रिया है परिणाम नहीं।
3. खोजपूर्ण अधिगम पर विशेष बल। इसका अर्थ विद्यार्थी को कुछ बताने या अधिगम कराने की अपेक्षा स्वयं के लिए खोजपूर्ण अधिगम के द्वारा ज्ञान संरचना के अवसर दिए जाने से है। इस अधिगम में छात्र स्वयं करके सीखता है तथा ज्ञान संरचना निर्माण के अवसर प्रदान होते हैं।
• खोजपूर्ण अधिगम (Discovery Learning) – ब्रूनर का खोजपूर्ण अधिगम को प्रस्तावित करने में महत्वपूर्ण योगदान है। इसमें अधिगमकर्ता संरचनाओं का अर्थ सक्रियता से निर्माण करते हैं तथा अपने आप सिद्धांत को पहचानते हैं। इस प्रकार विद्यार्थी स्वयं प्रत्यय और सिद्धांतों की खोज द्वारा सीखता है।
इस प्रकार के अधिगम में शिक्षक की कोई भूमिका नहीं होती छात्र स्वयं क्रियाशील रहे करें शोध के द्वारा अधिगमकर्ता है शिक्षक की भूमिका छात्रों में इस प्रकार की परिस्थिति निर्माण की होती है जिसमें छात्र अधिक से अधिक ज्ञान का निर्माण कर सकें विज्ञान इतिहास भूगोल आदि विषयों के लिए यह विधि बहुत ही अच्छी है।
4. पाठ्यक्रम (Crriculum) – ब्रूनर ने कुंडलिय पाठ्यक्रम का प्रतिपादन किया जिसका अर्थ है – अधिगम के लिए तत्परता तथा अपनी ज्ञानात्मक क्षमता के अनुसार किसी संप्रत्यय का निर्माण गहराई से करना।
ब्रूनर का मानना था कि पाठ्यक्रम को अन्वेषण और खोज के द्वारा समस्या समाधान कौशलों के विकास को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए। विषय वस्तु को बालक के नजरिए से संसार देखने के तरह का प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
ब्रूनर ने शिक्षण (Teaching) प्रत्ययों के व्यवस्थापन द्वारा तथा अधिगम (Learning) खोज के द्वारा किए जाने पर अधिक बल दिया।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (ncf-2005) के अंतर्गत भी बालक के द्वारा ज्ञान की संरचना पर बल दिया गया है जिसकी चर्चा ब्रूनर ने की है। बच्चे अपने वर्तमान ज्ञान के आधार पर अपने नए विचार का निर्माण करते हैं।
• जेरोम ब्रूनर ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में शिक्षकों के माध्यम से अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली एवं रुचिपूर्ण बनाने हेतु निम्न चार अपेक्षाएं रखी हैं :
1. अधिगम के लिए विद्यार्थियों को तत्पर करना।
2. ज्ञान को व्यवस्थित या संरचित करना।
3. विषय या अधिगम सामग्री का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण करना।
4. उचित पुनर्बलन प्रदान करना।
ब्रूनर का अधिगम सिद्धांत प्रमुख रूप से विद्यार्थियों को स्वतंत्र अध्ययन, कार्य व क्रिया करने, खोज करने तथा समस्या समाधान करने संबंधी योग्यताओं और क्षमताओं के विकास को प्राथमिकता दी है।
जेरोम ब्रूनर के अनुसार, “बच्चे अपनी समझ का ‘सामाजिक’ निर्माण करते हैं। परिवेश और संदर्भ का गहरा प्रभाव होता है। अगर बच्चों को उनके मानसिक स्तर और सार्थकता स्थापित करते हुए बताया जाये, तो वे जटिल बातें भी समझ सकते हैं।“
यानी समूह में कार्य करना, बच्चों की उम्र और संदर्भ ध्यान में रखना और सार्थक बनाने से हमारा काम आसान हो सकता है।
पियाजे और ब्रूनर दोनों ने संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन दोनों के संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया में कुछ समानताएं एवं असमानताएं हैं जो निम्न है –
समानताएं :
1. छात्र पूर्ववर्ती अनुकूलन के आधार पर अधिगम करता है।
2. बालक में स्वाभाविक रूप से भाषा विषय में जिज्ञासा होती है।
3. बच्चों की संज्ञानात्मक संरचनाएं समय के साथ-साथ विकसित होती है।
4. बच्चे अधिगम प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए अधिगम करते हैं।
5. संज्ञानात्मक विकास का अंतिम चरण प्रतीकों/संकेतों/चिन्हों के अभिग्रहण तक चलता है और इन्हें प्रमुखता दी गई है।
असमानताएं :
1. ब्रूनर विकास को एक सतत प्रक्रिया (Continue Process) मानते हैं जबकि पियाजे विभिन्न चरणों की एक श्रंखला मानते हैं।
2. ब्रूनर भाषा विकास को संज्ञानात्मक विकास का एक महत्वपूर्ण कारक मानता है जबकि प्याजे भाषा विकास को संज्ञानात्मक विकास के एक परिणाम के रूप में मानता है।
3. ब्रूनर के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की गति को बढ़ाया जा सकता है जबकि पियाजे के अनुसार बच्चों में संज्ञानात्मक विकास स्तर और परिपक्वता के अनुकूल स्व-गति से होता है।
4. ब्रूनर वयस्कों एवं अधिक ज्ञान रखने वाले साथियों की अधिगम प्रक्रिया में सहभागिता को महत्व देता है (जैसा कि वाइगोत्सकी देता है) जबकि पियाजे इसे स्वीकार नहीं करता है।
5. ब्रूनर के अनुसार प्रतिबिंबात्मक चिंतन के पूर्व में अपनाई गई अवस्थाओं के प्रतिनिधित्व बदलते नहीं है जबकि पियाजे के अनुसार ये बदल जाते हैं।
6. ब्रूनर अपने सिद्धांत में शिक्षा को ज्यादा महत्व देते हैं जबकि पियाजे अपने सिद्धांत में वातावरण को ज्यादा महत्व देते है।
7. ब्रूनर के सिद्धांत में बालक के विकास की तीन अवस्थाएं हैं जबकि पियाजे के सिद्धांत में चार अवस्थाएं हैं।
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